इस दशक कि राजनितिक परिद्र्श्य को देखते हुए ,जैसा कि पिछले दो चार महीनो में दिल्ली में हो रहा है , ये अवस्य ही कुछ नया हो रहा है । सच तो ये है कि आम आदमी भी ये नही सोच रहे की कुछ अच्छा होगा, अरविन्द जी के इन सब चीजो से। वो तो बस यही सोच रहे हैं कि चलो यार कुछ तो हो रहा है। ऑफिस से आने के बाद घर जाउंगा तो कुछ नयी खबर टीवी पर आ रहा होगा। थकान भी दूर हो जायेगी। किसी के मुँह से सुना कि ये धरने वरने कुछ हो न हो पर यदि इनपर इंटरटेंमेंट टैक्स लगा सच में अच्छी आय तो हो जायेगी ।
खैर जो कुछ भी हो आम जनता को अब लगने लगा है कि अरविन्द केजरीवाल का कुछ न कुछ स्वार्थ तो अवस्य होगा इन सब के पीछे। स्वार्थ का मतलब केवल ये नही होता कि काफी पैसे कमाए जाये सुखपूर्वक रात रजाई में गुजारी जाये। हो सकता है अरविन्द जी का स्वार्थ कुछ दूर कि सूच वाली हॊ। हो सकता है जितना वो समस्या सलझाना चाहते हैं उससे कही ज्यादा खुद को इतिहास के पन्नो में भी देखना चाहते हैं , भविष्य में ही सही।
इन सब घटनाक्रम से कुछ हो न हो ये तो सिद्ध हो ही गया कि अरविन्द जी के पास राजनितिक सूझबूझ हो या न हो पर मार्केटिंग करना तो काफी अच्छे से आता है। धरने पे बैठने का नका उद्देष्य न ही पुलिस वालो को छुट्टी पे भेजना था न ही औरतो को न्याय दिलाना था , थी तो बस एक राजनितिक मार्केटिंग जिसकी मदद से कल ये फिर से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्ज दिलवाने कि मांग करेंगे।
यदि हो गया तो भी वाह वाह , न हुआ तो कॉंग्रेस सपोर्ट वापिस लेंगी ही फिर भी वाह वाह। दाद देनी होगी अरविन्द जी की।